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श्री अमरनाथ बर्फानी बाबा की सात वर्ष पुरानी यात्रा- कथा : बाबा के भक्त एक तीर्थ यात्री की कलम से…..! – समदर्शी न्यूज

मरे मौत अकाल का,  जो काम करे चाण्डाल का।

काल उसका क्या बिगाड़े,  जो भक्त हो महाकाल का।

समदर्शी न्यूज डेस्क

इन पंक्तियों को जब-जब सुनता-पढ़ता, तब-तब अमरनाथ बर्फानी बाबा के दर्शन की अभिलाषा व्याग्र हो उठती थी। इस अभिलाषा को साकार करने का एक सुनहरा अवसर जुलाई 2015 में प्राप्त हुआ। अमरनाथ यात्रा पर जाने के पूर्व जिला चिकित्सालय से स्वास्थ्य प्रमाणपत्र लेने तथा पंजाब नेशनल बैंक में पंजीयन कराने की अनिवार्य प्रक्रिया को यथा समय पूर्ण किया।

यात्रा की तैयारी में जुटे थे तभी यात्रा तिथि के दो दिन पूर्व जानकारी मिली कि इटारसी के कंट्रोल रूम में हुई भीषण आगजनी के कारण दिल्ली जाने वाली गाड़ियां रदद कर दी गई है। सुनकर स्थिति यूं निर्मित हो गई मानों काटो तो खून नहीं। पर यह बात फिर चरितार्थ हो गई कि ईश्वर एक रास्ता बंद करता है तो दूसरे रास्ते को खोल देता है। हमनें फौरन हवाई यात्रा का निर्णय लिया और रायपुर से दिल्ली हवाई यात्रा, दिल्ली से जम्मू की यात्रा पूर्व-निर्धारित ट्रेन एवं जम्मू से श्रीनगर (300 किलोमीटर दूरी) का सफर हवाई यात्रा से हमनें की।

श्रीनगर से अमरनाथ जाने के लिए हमनें बालटाल मार्ग को चुना। 95 किलोमीटर दूर स्थित बालटाल तक जाने के लिए हमनें 18 सीटर मिनी बस को माध्यम बनाया। बालटाल पहुंचने के उपरान्त हमने आगे की यात्रा हेतु सीमित अत्यावश्यक सामान यथा गरम कपड़े, छड़ी, टार्च, दवाईयां के अलावा शेष अन्य समानों को मिनी बस में ही दो दिन के लिए छोड़ दिया। आगे बालटाल बेस केम्प में प्रवेश करते समय हमें सैनिकों के जांच शिविर से गुजरना पड़ा, जहां कि बड़ी सूक्ष्मता से हमारी और सामानों की जांच हुई। समुद्र तट से बालटाल की ऊंचाई 10,500 फीट हैं, वहां बर्फीली हवाओं की मार झेलते हमनें किराये पर उपलब्ध टेन्ट में रात्रि विश्राम किया।

अगली सुबह प्रातः चार बजे हम अमरनाथ गुफा के लिए किराये के खच्चर से रवाना हुये। हजारों की संख्या में वहां खच्चरों को देखना यूं अहसास करा रहा था, मानों खच्चरों का मेला लगा हो। खच्चरों की इस भीड़ में गुम हो जाने पर अपने खच्चर को ढूंढ़ पाना समुद्र में मोती ढूंढ लाने जैसा ही कार्य रहा। वहां एक मजेदार बात का अनुभव हुआ ज्यादातर खच्चर वालों की निगाह दुबले-पतले तीर्थयात्रियों की तरफ रहती है। दाम पूरा और खच्चर पर बोझ कम पड़े, यह उनकी बारीक सोच होती हैं। खच्चर पर सवार हम आगे बढ़े तभी रास्ते में निर्मित ‘‘डोमैल कंट्रोल गेट‘‘ पर हमारे स्वास्थ्य प्रमाण-पत्र, परिचय-पत्र एवं पंजीयन तिथि-पत्र की जांच वहां तैनात सैनिकों द्वारा की गई। (यात्रियों को निर्धारित पंजीकृत तिथि पर यात्रा करना होता है)।

डोमैल गेट पर सारी वैधानिक प्रक्रियाएं पूर्ण करने के उपरान्त भोलेनाथ की जयकारा लगाते हुये हमारी टोली अमरनाथ गुफा की ओर चल पड़ी। हमें लगभग 13 किलोमीटर का सफर तय करना था। इस दौरान कहीं बर्फ, कहीं कीचड़ तो कहीं खच्चरों की लीद से पटे मार्ग में भारी फिसलन थी। अत्यंत संकरीले और सर्पीले घुमावदार उतार-चढ़ावयुक्त पहाड़ के ऐसे मार्ग पर खच्चरों को सधे हुये कदमों से चलते हुए देखकर लगता था मानो खाई में नहीं गिरने का उन्हें वरदान प्राप्त हैं। बालटाल से अमरनाथ गुफा तक की यात्रा हेतु दूरूह-खतरनाक रास्ते से गुजरना होता है। यहीं वजह है कि ज्यादातर यात्री पहलगाम की ओर से यात्रा करना पसंद करते हैं। यहां यह बताते चले कि बालटाल से अमरनाथ गुफा तक पहुंचने के लिए केवल एक दिन तथा पहलगाम से तीन दिन का समय लगता है। पर तीर्थयात्री चाहे जहां से चले, पहाड़ी मार्ग पर ‘‘संगम‘‘ नामक एक ऐसा स्थल आता है जहां से दोनों छोर के यात्री एक ही मार्ग पर आगे बढ़ते है।

पहाड़ी मार्ग पर एक ओर गहरी खाई थी तो दूसरी ओर पहाड़ी दीवार। नियमानुसार खच्चरों को पहाड़ी रास्ते के खाई की ओर किनारे-किनारे तथा पैदल यात्रियों को पहाड़ं से सट कर चलना होता है। ऐसे भयावह मार्ग में चलते हुए खच्चर पर सवार तीर्थ यात्री को मृत्यु अपनी मुट्ठी में नजर आती हैं और उसके मुख से उस समय केवल बम-बम भोले का सुर ही निकलता हैं।

ऐसे ही भोले भंडारी का नाम जपते सांस गिनते हम उस स्थल पर पहुंच गये जहां से अमरनाथ की गुफा हमें स्पष्ट दिखाई दे रहीं थी। उस समय आश्चर्यमिश्रित हर्ष से भाव-विभोर हमारे मुंह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे। यहां खच्चर से उतरते ही हमारे पांव भुरभुरे सफेद बर्फ में धंस-धंस जा रहे थे। दूर-दूर तक वहां बर्फीली जमीन पर स्थापित रंग-बिरंगे टेन्ट यूं अहसास करा रहे थे, मानो सफेद चादर पर विभिन्न रंगों के फूलों की कशीदाकारी की गई हो। सूर्य की किरणों से चमचमाते पर्वत शिखर पर नजरें टिक नहीं पा रही थी।

हमनें वहां एक टेन्ट किराये पर लिया। वहीं हमें 50 रूपये प्रति बाल्टी की दर पर गरम पानी उपलब्ध हो गया। बर्फीली सतह पर स्नान करने का अनुठा अनुभव ले हम भोलेनाथ की गुफा दर्शन करने चल पड़े। वहां रास्ता को आसान बनाने के लिए रास्ते पर जमे बर्फ को हटाने सैनिक दल सतत् जुटे हुये थे, फलस्वरूप सहजतापूर्वक हम पवित्र गुफा के द्वार पर पहुंच गये।

श्री अमरनाथ की गुफा समुद्र सतह से 12729 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मानव निर्मित मंदिर नहीं बल्कि प्रकृति द्वारा निर्मित एक उबड़-खाबड़ 30 फीट चौड़ी और करीब 60 फीट लम्बी प्रकृति निर्मित गुफा है। इसके द्वार पर कोई किवाड़ नहीं हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव ने पार्वती मैया को इसी गुफा में अमर कथा सुनाया था। पवित्र गुफा के भीतर प्रकृति निर्मित हिम शिवलिंग (लगभग 17 फीट ऊंची) के साथ ही श्री गणेश पीठ तथा पार्वती पीठ के दर्शन हुये।

एक अद्भुत और आश्चर्यचकित कर देने वाली बात वहां दिखाई दी कि गुफा के बाहर बुरादे की भांति भुरभुरा बर्फ का संसार बिखरा पड़ा है वहीं गुफा के भीतर निर्मित शिव लिंग, श्री गणेश पीठ तथा पार्वती पीठ पक्के कड़े बर्फ निर्मित थे। गुफा के भीतर ऊपर से जल की बंदें टप-टप टपक रही थी। इस संबंध में वहां उपस्थित भक्तों ने बताया कि ऐसी मान्यता है कि गुफा के ऊपर पर्वत पर श्रीराम कुण्ड हैं। गुफा के भीतर वन कबूतरों का होना चमत्कृत करता हैं। इनके दर्शन पाने के लिए तीर्थयात्री बैचेन आंखों से गुफा के भीतर इन्हें तलाशते हैं, दरअसल इनका दर्शन भी अत्यंत शुभ माना जाता हैं।

पवित्र गुफा में मनभर समय बिताने के उपरान्त हम टेन्ट की ओर लौट चले। उस समय रास्ते भर लगे लंगरों में निःशुल्क बंट रहे केसरयुक्त दूध, खीर, दही, चांवल, छोले-भटूरे जैसे विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजनों का भरपूर स्वाद हमनें लिया। रात में वहां बर्फीली सतह पर बने टेन्ट के भीतर बिछे मोटे तारपोलिन के ऊपर भारी-भरकम गददे और रजाई में सोने का अनुभव भी अद्भुत रहा। आंखों में नींद के बजाय भोलेनाथ की गुफा समाई हुई थी, लेकिन भारी थकान की वजह से कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला। सुबह चहुंओर फैली बर्फीली सतह पर ही दैनिक दिनचर्या से निवृत्त होकर हम वापस बालटाल के लिए लौट चले।

प्रत्येक वर्ष आषाढ़ पूर्णिमा से प्रारंभ होकर श्रावण मास की पूर्णिमा तक संपन्न होने वाली इस यात्रा पथ पर जगह-जगह तैनात सैनिकों को देखकर बरबस सिर श्रद्धा से झुक जाता था। इनकी सक्रियता से ही कठिन मार्ग की यात्रा सुरक्षित सुगमता से संपन्न हो पाती हैं। यहां पर भक्ति भाव में डूबे लंगर संचालकों की सेवा भी नमन योग्य हैं, जो कि दिन-रात आंधी-पानी, सरसराती बर्फीली हवा के मध्य तीर्थ यात्रियों की सेवा सहित निःशुल्क गरमा-गरम लजीज व्यंजन परोसने के लिए हर पल आतुर रहते हैं। उन्हें देखकर भगवान श्रीराम की सेवा में लीन भीलनी शबरी की याद बरबस आ गई थी।

कश्मीर की हसीन वादियों के बीच अमरनाथ की पवित्र गुफा आज भी अपनी ओर खींचती हैं और भाव-विभोर मन कह उठता है – ‘‘ऐसी फिजा न मिलेंगी सारे जहां में, जन्नत अगर हैं कहीं, तो हिन्दुस्तान में।‘‘

इस यात्रा संस्मरण के लेखक एवं तीर्थ यात्री–

विजय मिश्रा ‘अमित’  पूर्व अति. महाप्रबंधक (जन)

एम-8 सेक्टर-2 , अग्रसेन नगर, पो.आ. – सुंदर नगर रायपुर (छग)

यह लेख तीर्थ यात्री के अपने अनुभव के आधार पर लिखा गया है और भक्तों को उस समय की श्री अमरनाथ यात्रा के अनुभव से अवगत कराना मात्र है।                                                                                          

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