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9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस पर विशेष आलेख : “आदिवासी भाईयों के मिजाज लाजवाब है,गणित की किताब में वे रखते गुलाब है’’ - समदर्शी न्यूज

समाजशास्त्रियों ने भी समाज में बढ़ती हिंसा का बड़ा कारण विकृत होती संस्कृति को बताया है

समदर्शी न्यूज ब्यूरो, रायपुर

पूरे विश्व में आदिवासियों की एक बहुत बड़ी आबादी निवास करती है अनेक विचारक इन्हें मूल निवासी भी कहते हैं। इनकी प्राचीन कला संस्कृति और मूल अधिकार के संरक्षण की आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुए पहली बार 09 अगस्त 1982 को संयुक्त राष्ट्र संघ (यू.एन.ओ) की बैठक हुई। इसमें आदिवासियों के हित और विकास को लेकर ब्यापक विचार-विमर्श किया गया।

आगे वर्ष 1993 में जिनेवा (स्विटजरलैंड ) में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी सम्मेलन में प्रति वर्ष 09 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाए जाने का निर्णय लिया गया। फलस्वरूप प्रबल आत्मविश्वास की ज्योति सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ आदिवासी समाज में जल उठी। इसकी साक्षी उड़ीसा की श्रीमती द्रौपदी मुर्मू भी हैं। जिन्हें भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति होने का गौरव मिला है।

आदिवासी बाहुल्य राज्य छत्तीसगढ़

भारत का ह्दय स्थल छत्तीसगढ़ भी आदिवासी बाहुल्य राज्य है।यहां की लगभग इकत्तिस प्रतिशत आबादी अनुसूचित जनजातियों की है।नवम्बर 2000 में जब छत्तीसगढ़ को स्वतंत्र राज्य का दर्जा मिला तो यहां के आदिवासियों के मन में भी एक नई सुबह की,नई उम्मीद की किरण जगी।सदियों से शोषित उपेक्षित आदिवासी लोककला-संस्कृति के पुनर्जीवित एवं प्रतिष्ठित होने  का सुनहरा अवसर दिखा, किन्तु सत्रह वर्ष बीत जाने के बाद भी आदिवासियों की यह आस उनके मन में धरी की धरी रह गई।

छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की चाहत पत्थर की मूरत बनी अहिल्या की भांति किसी राम के आने और उसके स्पर्श से सजीव होने की चाह में घुटती रही।अंततः आदिवासियों की चाहत रंग लाई।काली घटा को चीरते हुए दिसम्बर 2018 में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में नई सरकार बनी। तब इन्होंने छत्तीसगढ़ की महतारी और उनके वनवासी बेटी-बेटियों की पीड़ा को हरने का बीड़ा उठाया।

आदिवासियों को गिरीजन कहते थे गांधी

उल्लेखनीय है कि आदिवासियों को महात्मा गांधी जी “गिरीजन अर्थात पहाड़ों पर रहने वाले” कहते थे। उनका मानना था कि इन्हें भूलाना माने अपने मूल संस्कृति से भागने की भूल जैसे कृत्य है। मूल संस्कार से बढ़ती दूरी के कारण ही घर परिवार समाज में घातक हिंसा दिनों-दिन बढ़ रही है। समाजशास्त्रियों ने भी समाज में बढ़ती हिंसा का बड़ा कारण विकृत होती संस्कृति को बताया है।

ऐसे समाज सुधारक तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार करके छत्तीसगढ़ सरकार ने विश्व आदिवासी दिवस 09 अगस्त पर सामान्य अवकाश देने की घोषणा की। प्रदेश इतिहास में पहली बार हुई इस घोषणा के बाद आदिवासी कला, संस्कृति को प्रतिष्ठित कराने तथा आदिवासी समाज के लोगों के उत्थान की विशेष पहल की गई।

आदिवासी जीवटता होगी उजागर

यह एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला है, जो नई पीढ़ी को अवगत कराने में कारगर होगा कि पहाड़-घाटियों के बीच हिंसक पशुओं से जूझते हुए भी खुशी के साथ जीना आदिवासी जीवटता की खास पहचान है। इस दिवस पर यह भी जन-चर्चा का विषय बनेगा कि देश को आजाद कराने में भी छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदाय का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास बताता है कि 1857 की क्रांति के पहले ही छत्तीसगढ़ में 1824 में अबुझमाड़ के वीर गेंदा सिंह ने वनवासियों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ी थी। इसी तरह 1856 में सोना खान के सपूत वीर नारायण सिंह, फिरंगियों से लोहा लेने कूद पड़े थे। जिन्हें रायपुर के जयस्तंभ चौक में अंग्रेजों ने फांसी दे दी। स्वतंत्रता संग्राम के छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद होने का गौरव इन्हें प्राप्त है।

इस समाज के वीर गुंडाधुर, गेंदसिंह, राजा भैरम देव तथा बस्तर के गांधी कहे जाने वाले इन्दरू केवट का नाम भी फिरंगियों की नाक में नकेल डालने के लिए जाना जाता है। आदिवासी समाज के वीर सपूतों का पराक्रम, संघर्ष, भोलापन और लोकनृत्यों के प्रति दीवानगी को देखते हुए कविश्री की पंक्तियों में कहना होगा “आदिवासी भाईयों के मिजाज लाजवाब है,गणित की किताब में वे रखते गुलाब है’’

लेखक

विजय मिश्रा ‘अमित

 पूर्व अति. महाप्रबंधक(जन.),छग पावर कंपनी

एम-8 सेक्टर-2 , अग्रोहा सोसायटी, पो.आ.-सुंदर नगर, रायपुर (छग) 492013

इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार है, इस लेख के संदर्भ में वेब पोर्टल की सहमति अनिवार्य नहीं है।

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